इश्क़ कब अपने मक़ासिद का निगहबाँ न हुआ
कौन सा ग़म है जो आख़िर ग़म-ए-जानाँ न हुआ
लाख चाहा मगर अफ़्सोस कि आँसू न थमे
ज़ब्त-ए-ग़म मुझ से ब-क़द्र-ए-ग़म पिन्हाँ न हुआ
तेरी इशरत है कि गर्दूं के दबाए न दबी
मेरा ग़म है कि हँसी में भी नुमायाँ न हुआ
ग़म-ए-दुनिया ग़म-ए-उक़्बा ग़म-ए-हस्ती ग़म-ए-मौत
कोई ग़म भी तो हरीफ़-ए-ग़म-ए-जानाँ न हुआ
ज़र्रे ज़र्रे से ये ऐलान-ए-परेशानी है
मुतमइन ख़ाक वो होगा जो परेशाँ न हुआ
जिस के दामन से है वाबस्ता मिरा ज़ौक़-ए-हयात
वो भी काफ़िर मिरे मेआ'र का इंसाँ न हुआ
मैं रहा गरचे हर एहसास पे मसरूफ़-ए-सुजूद
कोई सज्दा भी तिरी शान के शायाँ न हुआ
बर्फ़-ज़ार-ज़र-ओ-दौलत का हर अफ़्सुर्दा ज़मीर
ज़मज़मों से मिरे कब शो'ला-ब-दामाँ न हुआ
बर्क़ नाकाम मह-ओ-मेहर कवाकिब मायूस
न हुआ मेरे नशेमन में चराग़ाँ न हुआ
मेरे तख़्लीक़-ए-अदब में है क़सीदा मादूम
मुझ से 'एहसान' किसी वक़्त ये इस्याँ न हुआ
ग़ज़ल
इश्क़ कब अपने मक़ासिद का निगहबाँ न हुआ
एहसान दानिश