इश्क़ का मारा न सहरा ही में कुछ चौपट पड़ा
है जहाँ उस का अमल वो शहर भी है पट पड़ा
आशिक़ों के क़त्ल को क्या तेज़ है अबरू की तेग़
टुक उधर जुम्बिश हुई और सर इधर से कट पड़ा
अश्क की नोक-ए-मिज़ा पर शीशा-बाज़ी देखिए
क्या कलाएँ खेलता है बाँस पर ये नट पड़ा
शायद उस ग़ुंचा-दहन को हँसते देखा बाग़ में
अब तलक ग़ुंचा बलाएँ लेता है चट चट पड़ा
देख कर उस के सरापा को ये कहती है परी
सर से ले कर पाँव तक याँ हुस्न आ कर फट पड़ा
क्या तमाशा है कि वो चंचल हटीला चुलबुला
और से तो हिट गया पर मेरे दिल पर हट पड़ा
क्या हुआ गो मर गया फ़रहाद लेकिन दोस्तो
बे-सुतूँ पर हो रहा है आज तक खट खट पड़ा
हिज्र की शब में जो खींची आन कर नाले ने तेग़
की पटे-बाज़ी वले तासीर से हट हट पड़ा
दिल बढ़ा कर उस में खींचा आह ने फिर नीमचा
ऐ 'नज़ीर' आख़िर वो उस का नीमचा भी पट पड़ा
ग़ज़ल
इश्क़ का मारा न सहरा ही में कुछ चौपट पड़ा
नज़ीर अकबराबादी