इश्क़ का दर्द-ए-बे-दवा है ये
जाने तेरी बला कि क्या है ये
मार डालेगी एक आलम को
तेरी ऐ शोख़ गर अदा है ये
हर दम आता है और ही सज से
क्या ही अल्लाह मीरज़ा है ये
चाहिए उस का शर्बत-ए-दीदार
कि तप-ए-इश्क़ की दवा है ये
उस सितम-पेशा मेहर दुश्मन की
मेरे ऊपर अगर जफ़ा है ये
इस में उस की तो कुछ नहीं तक़्सीर
चाहने की मिरे सज़ा है ये
दिल-ए-'बेदार' को तो लूट लिया
ज़ुल्फ़ है या कोई बला है ये
ग़ज़ल
इश्क़ का दर्द-ए-बे-दवा है ये
मीर मोहम्मदी बेदार