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इश्क़ जब मंज़िल-ए-आख़िर से गुज़रता होगा | शाही शायरी
ishq jab manzil-e-aKHir se guzarta hoga

ग़ज़ल

इश्क़ जब मंज़िल-ए-आख़िर से गुज़रता होगा

हनीफ़ अख़गर

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इश्क़ जब मंज़िल-ए-आख़िर से गुज़रता होगा
एक भी अश्क न आँखों से टपकता होगा

हम तो जब जानें कि जब वक़्त हमारा बदले
लोग कहते हैं बदलता है बदलता होगा

होगा ऐ दोस्त यक़ीनन वो मिरे दिल की तरह
जो दिया रुख़ पे हवाओं के भी जलता होगा

आज ठहराया है ख़ुद जिस ने मुझे क़ाबिल-ए-दार
कल वही मेरी वफ़ाओं को तरसता होगा

साग़र-ए-चश्म में मय-कश उसे भरते होंगे
रंग जब आप के चेहरे से छलकता होगा

जो नज़र उठती है बन जाती है इक मौज-ए-ख़ुमार
दस्त-ए-साक़ी में कोई जाम छलकता होगा

हाल 'अख़्गर' के तड़पने का सुना जब तो कहा
उस की फ़ितरत ही तड़पना है तड़पता होगा