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इश्क़ इश्क़ हो शायद हुस्न में फ़ना हो कर | शाही शायरी
ishq ishq ho shayad husn mein fana ho kar

ग़ज़ल

इश्क़ इश्क़ हो शायद हुस्न में फ़ना हो कर

फ़ानी बदायुनी

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इश्क़ इश्क़ हो शायद हुस्न में फ़ना हो कर
इंतिहा हुई ग़म की दिल की इब्तिदा हो कर

दिल हमें हुआ हासिल दर्द में फ़ना हो कर
इश्क़ का हुआ आग़ाज़ ग़म की इंतिहा हो कर

ना-मुराद रहने तक ना-मुराद जीते हैं
साँस बन गया इक एक नाला ना-रसा हो कर

अब हुई ज़माने में शेवा-ए-वफ़ा की क़द्र
आलम-आश्ना है वो दुश्मन-ए-वफ़ा हो कर

और बंदे हैं जिन को दावा-ए-ख़ुदाई है
थी हमारी क़िस्मत में बंदगी ख़ुदा हो कर

उम्र-ए-ख़िज़्र के अंदाज़ हर नफ़स में पाता हूँ
ज़िंदगी नई पाई आप से जुदा हो कर

बढ़ता है न घटता है मरते हैं न जीते हैं
दर्द पर ख़ुदा की मार दिल में रह गया हो कर

कार-गाह-ए-हसरत का हश्र क्या हुआ या रब
दाग़-ए-दिल पे क्या गुज़री नक़्श-ए-मुद्दआ हो कर

इश्क़ से हुए आगाह सब्र की भी हद देखी
ख़ाक में मिला दोगे देर-आश्ना हो कर

की क़ज़ा-ए-मुब्रम ने ज़िंदगी की ग़म-ख़्वारी
दर्द की दवा पहुँची दर्द बे-दवा हो कर

ज़िंदगी से हो बे-ज़ार 'फ़ानी' इस से क्या हासिल
मौत को मना लोगे जान से ख़फ़ा हो कर