इश्क़ हर-चंद मसाइब से परेशाँ न हुआ
न हुआ हुस्न मगर ताब-ए-फ़रमाँ न हुआ
लाख दुनिया ने ये चाहा कि परेशाँ हो मगर
मैं तिरे ग़म की हिफ़ाज़त में परेशाँ न हुआ
दिल की आवाज़ हो महरूम-ए-असर क्या मा'नी
इश्क़ काफ़िर है अगर हुस्न मुसलमाँ न हुआ
दरपय उक़्दा-ए-हस्ती है अज़ल ही से बशर
लेकिन इक ख़ाक के ज़र्रे का भी इरफ़ाँ न हुआ
दिल में हर ख़ून का क़तरा है तलातुम ब-कनार
जो मगर आँख से टपका वही तूफ़ाँ न हुआ
तो वो आज़ाद कि बे-वज्ह है मुझ से भी गुरेज़
मैं वो मजबूर कि दुश्मन से भी नालाँ न हुआ
अपनी पैग़ाम-नवाई के नताएज में मुझे
फ़िक्र-ए-ज़िंदाँ तो रहा है ग़म-ए-ज़िंदाँ न हुआ
जिस के मशरब में मोहब्बत हो मोहब्बत का जवाब
मेरी तक़दीर में ऐसा कोई इंसाँ न हुआ
एक ही जल्वे से 'एहसान' नज़र हट न सकी
मुझ से कुछ उस के सिवा कार-ए-नुमायाँ न हुआ
ग़ज़ल
इश्क़ हर-चंद मसाइब से परेशाँ न हुआ
एहसान दानिश