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इश्क़ है इक कैफ़-ए-पिन्हानी मगर रंजूर है | शाही शायरी
ishq hai ek kaif-e-pinhani magar ranjur hai

ग़ज़ल

इश्क़ है इक कैफ़-ए-पिन्हानी मगर रंजूर है

असग़र गोंडवी

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इश्क़ है इक कैफ़-ए-पिन्हानी मगर रंजूर है
हुस्न-ए-बे-पर्दा नहीं होता मगर दस्तूर है

ख़स्तगी ने कर दिया उस को रग-ए-जाँ से क़रीब
जुस्तुजू ज़ालिम कहे जाती थी मंज़िल दूर है

ले इसी ज़ुल्मत-कदे में उस से महरूमी की दाद
उस से आगे ऐ दिल-ए-मुज़्तर हिजाब-ए-नूर है

लब पे मौज-ए-हुस्न जब चमके तबस्सुम नाम हो
रब्बी-अरेनी कह के चीख़ उठूँ तू बर्क़-ए-तूर है

नूर आँखों में उसी का जल्वा ख़ुद नूर-ए-मुहीत
दीद क्या है कुछ तलातुम में हुजूम-ए-नूर है

आँख है जब महव-ए-हैरत तो नुमायाँ है वही
फ़िक्र हो जब कार-फ़रमा तो वही मस्तूर है

देखता हूँ मैं कि है बहर-ए-हक़ीक़त जोश पर
जो हुबाब उठ उठ के मिटता है सर-ए-मंसूर है