EN اردو
इश्क़-ए-जान-ए-जहाँ नसीब हुआ | शाही शायरी
ishq-e-jaan-e-jahan nasib hua

ग़ज़ल

इश्क़-ए-जान-ए-जहाँ नसीब हुआ

हातिम अली मेहर

;

इश्क़-ए-जान-ए-जहाँ नसीब हुआ
इक ज़माना मिरा रक़ीब हुआ

मर गए हम मसीह के दम में
ये भी इक वाक़िआ' अजीब हुआ

उन से कह दो कि आप पर आशिक़
बेकस-ओ-बे-वतन ग़रीब हुआ

न सुने नाले क्या किसी गुल ने
तुझ को क्या रंज अंदलीब हुआ

पास आदाब-ए-हुस्न-ए-यार रहा
इश्क़ मेरे लिए अदीब हुआ

जब नकीरैन ने सवाल किए
या-अली कह के मैं मुजीब हुआ

मेरा सर होगा और उन के पाँव
यावर अपना अगर नसीब हुआ

जब हुआ क़ब्र में सवाल ऐ 'मेहर'
या-अली कह के मैं मुजीब हुआ