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इश्क़-ए-बुताँ का ले के सहारा कभी कभी | शाही शायरी
ishq-e-butan ka le ke sahaara kabhi kabhi

ग़ज़ल

इश्क़-ए-बुताँ का ले के सहारा कभी कभी

अर्श मलसियानी

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इश्क़-ए-बुताँ का ले के सहारा कभी कभी
अपने ख़ुदा को हम ने पुकारा कभी कभी

आसूदा-ए-ख़ातिर ही नहीं मत्मह-ए-वफ़ा
ग़म भी किया है हम ने गवारा कभी कभी

इस इंतिहा-ए-तर्क-ए-मोहब्बत के बावजूद
हम ने लिया है नाम तुम्हारा कभी कभी

तूफ़ाँ का ख़ौफ़ है अभी शायद करिश्मा-कार
आता है सामने जो किनारा कभी कभी

तन्हा-रवी ने रक्खी हमारे जुनूँ की लाज
गो अहल-ए-कारवाँ ने पुकारा कभी कभी

अब क्या कहें दिल-ए-मुतलव्विन-मिज़ाज को
अक्सर ये आप का है हमारा कभी कभी

पैहम सितम से इश्क़ की तस्कीन हो न जाए
ऐ दोस्त इल्तिफ़ात ख़ुदा-रा कभी कभी

फ़रियाद-ए-ग़म से 'अर्श' सँभलता है दिल मगर
लेते हैं अहल-ए-दिल ये सहारा कभी कभी