इश्क़ और इश्क़-ए-शोला-वर की आग
आग और उल्फ़त-ए-बशर की आग
जिस को कहते हैं बर्क़-ए-आलम-सोज़
है वो काफ़िर तिरी नज़र की आग
हाए-रे तेरी गर्मी-ए-रफ़्तार
ख़ाक तक भी है रहगुज़र की आग
लो शब-ए-वस्ल भी तमाम हुई
आसमाँ को लगी सहर की आग
इश्क़ क्या शय है हुस्न है क्या चीज़
कुछ इधर की है कुछ उधर की आग
तूर-ए-सीना बना दिया दिल को
उफ़-रे काफ़िर तिरी नज़र की आग
हक़्क़-तआला बचाए इस से 'ज़हीर'
क़हर है उल्फ़त-ए-बशर की आग
ग़ज़ल
इश्क़ और इश्क़-ए-शोला-वर की आग
ज़हीर देहलवी