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इश्क़-आबाद फ़क़ीरों की अदा रखते हैं | शाही शायरी
ishq-abaad faqiron ki ada rakhte hain

ग़ज़ल

इश्क़-आबाद फ़क़ीरों की अदा रखते हैं

नजीब अहमद

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इश्क़-आबाद फ़क़ीरों की अदा रखते हैं
और क्या इस के सिवा अहल-ए-अना रखते हैं

हम तही-दस्त कुछ ऐसे भी तही-दस्त नहीं
कुछ नहीं रखते मगर पास-ए-वफ़ा रखते हैं

ज़िंदगी भर की कमाई ये तअल्लुक़ ही तो है
कुछ बचे या न बचे इस को बचा रखते हैं

शेर में फूटते हैं अपनी ज़बाँ के छाले
नुत्क़ रखते हैं मगर सब से जुदा रखते हैं

हम नहीं साहिब-ए-तकरीम तो हैरत कैसी
सर पे दस्तार न पैकर पे अबा रखते हैं

शहर आवाज़ की झिलमिल से दमक उट्ठेंगे
शब-ए-ख़ामोश की रुख़ शम्-ए-नवा रखते हैं

इक तिरी याद गले ऐसे पड़ी है कि 'नजीब'
आज का काम भी हम कल पे उठा रखते हैं