इस ज़ुल्फ़ पे महव हो गए हम
या'नी सर-ए-शाम सो गए हम
कहते थे हमेशा जाओ जाओ
आख़िर इक रोज़ लो गए हम
ऐ मेहर-लक़ा मिसाल-ए-साया
तुझ में अपने को खो गए हम
अपने आमद-ओ-रफ़्त मौज-ए-दरिया
जाते नहीं याँ से गो गए हम
क्या शे'र हैं आब-दार 'मारूफ़'
गोया मोती पिरो गए हम
ग़ज़ल
इस ज़ुल्फ़ पे महव हो गए हम
मारूफ़ देहलवी