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इस ज़मीं आसमाँ के थे ही नहीं | शाही शायरी
is zamin aasman ke the hi nahin

ग़ज़ल

इस ज़मीं आसमाँ के थे ही नहीं

फ़ारूक़ बख़्शी

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इस ज़मीं आसमाँ के थे ही नहीं
राब्ते दरमियाँ के थे ही नहीं

हम से मिट्टी महक गई कैसे
हम तो इस ख़ाक-दाँ के थे ही नहीं

कैसे करते रक़म हदीस-ए-दिल
वाक़िए सब बयाँ के थे ही नहीं

हम वो किरदार कैसे बन जाते
जब तिरी दास्ताँ के थे ही नहीं

उन से तहज़ीब की तवक़्क़ो' थी
वो जो उर्दू ज़बाँ के थे ही नहीं