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इस वहम की इंतिहा नहीं है | शाही शायरी
is wahm ki intiha nahin hai

ग़ज़ल

इस वहम की इंतिहा नहीं है

अज़ीज़ लखनवी

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इस वहम की इंतिहा नहीं है
सब कुछ है मगर ख़ुदा नहीं है

क्या इस का सुराग़ कोई पाए
जिस चीज़ की इब्तिदा नहीं है

खुलता ही नहीं फ़रेब-ए-हस्ती
कुछ भी नहीं और क्या नहीं है

इस तरह सितम वो कर रहे हैं
जैसे मेरा ख़ुदा नहीं है

तुम ख़ुश हो तो है मुझे नदामत
हर-चंद मिरी ख़ता नहीं है

देखो तो निगाह-ए-वापसीं को
इस एक नज़र में क्या नहीं है

दुनिया का भरम न खोल ऐ आह
ये राज़ अभी खुला नहीं है

हर ज़र्रा है शाहिद-ए-तजल्ली
इस हुस्न की इंतिहा नहीं है

सरगर्म-ए-तलाश रहने वाले
तेरा भी कहीं पता नहीं है

उमडा है जो दिल 'अज़ीज़' रो लो
आँसू कोई रोकता नहीं है