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इस उजड़े शहर के आसार तक नहीं पहुँचे | शाही शायरी
is ujDe shahr ke aasar tak nahin pahunche

ग़ज़ल

इस उजड़े शहर के आसार तक नहीं पहुँचे

रऊफ़ अमीर

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इस उजड़े शहर के आसार तक नहीं पहुँचे
मुअर्रिख़ीन दिल-ए-ज़ार तक नहीं पहुँचे

तमाम उम्र मसाफ़त में कट गई अपनी
मगर हनूज़ दर-ए-यार तक नहीं पहुँचे

पटी पड़ी हैं तहें सोच के समुंदर की
कई गुहर लब-ए-इज़हार तक नहीं पहुँचे

कई तराशने के दरमियान टूट गए
तमाम संग तो शहकार तक नहीं पहुँचे

तमाम गुलशन-ए-इम्काँ निसार है तुझ पर
मगर वो फूल जो महकार तक नहीं पहुँचे

हम अपने अहद के यूसुफ़ ज़रूर हैं लेकिन
कुएँ में क़ैद हैं बाज़ार तक नहीं पहुँचे

'अमीर' हम ने सलीबों का इंतिख़ाब किया
मगर कभी किसी दरबार तक नहीं पहुँचे