इस तवक़्क़ो पे खुला रक्खा गरेबाँ अपना
जाने कब आन मिले जान-ए-बहाराँ अपना
लम्हे लम्हे की रिफ़ाक़त थी कभी वजह-ए-नशात
मौसम-ए-हिज्र हुआ अब सर-ओ-सामाँ अपना
नित-नए ख़्वाब दिखाता है उजालों के लिए
वो कि है दुश्मन-ए-जाँ दुश्मन-ए-ईमाँ अपना
निकहत-ए-गुल ही नहीं ख़ाक भी है हम को अज़ीज़
अपना सहरा है चमन अपना ख़याबाँ अपना
देख लेती है जहाँ अज़्म-ओ-यक़ीं के पैकर
रुख़ बदलती है वहाँ गर्दिश-ए-दौराँ अपना
ये तो माना कि हुई इश्क़ में रुस्वाई बहुत
हो गया नाम ग़ज़ल में तो नुमायाँ अपना
उस से बिछड़े हैं तो महसूस हुआ है 'नासिर'
हाल इतना तो न था पहले परेशाँ अपना
ग़ज़ल
इस तवक़्क़ो पे खुला रक्खा गरेबाँ अपना
नासिर ज़ैदी