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इस तरह रुख़ फेरते हो सुनते ही बोसे की बात | शाही शायरी
is tarah ruKH pherte ho sunte hi bose ki baat

ग़ज़ल

इस तरह रुख़ फेरते हो सुनते ही बोसे की बात

अब्दुल वहाब यकरू

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इस तरह रुख़ फेरते हो सुनते ही बोसे की बात
शाह-ए-मा'शूक़ाँ के आगे क्या है ये एती बिसात

क्यूँ न दौड़े तब दिवाना हो के मजनूँ दश्त कूँ
जब लिखी हो आशिक़ाँ की शाख़-ए-आहू पे बरात

झिलझिलाती है महीं जामे सीं तेरे तन की जोत
माह का ख़िर्मन है ऐ ख़ुर्शीद-रू तेरा योगात

सौ गिरह थी दिल में मेरे ख़ोशा-ए-अंगूर जूँ
एक प्याले सीं किया साक़ी नें हल्ल-ए-मुश्किलात

कुछ कहो 'यकरू' पिया दर सीं तिरे टलता नहीं
बूझता है एक ये घर जानता नहिं पाँच सात