इस तरह करते हैं कुछ लोग बड़ाई उस की
ख़ल्क़ उस की है ख़ुदा उस का ख़ुदाई उस की
क्या ख़बर थी कि यहीं वस्ल के साए के क़रीब
धूप के बीच पड़ी होगी जुदाई उस की
ले गए शौक़ से मरहूम की हर शय अहबाब
छोड़ दी ताक़ के ऊपर ही अच्छाई उस की
की है इफ़्लास में दोशीज़ा-ए-उम्मीद जवाँ
अब तो बस बैठ के खानी है कमाई उस की
ज़िंदगी कटती है दोनों की मुसलसल ज़िद में
क़ैद है मेरी वही जो है रिहाई उस की
मो'तबर नाम था वो फिर भी हवाला न दिया
जाँ बचाने को क़सम झूटी न खाई उस की
ज़िंदगी सारी गँवा दूँ ये ज़रूरी तो नहीं
ये बहुत है कि कोई बात निभाई उस की
ये मोहब्बत नहीं कुछ और है सूरत 'शाहीं'
तुम मज़ा ले के जो सुनते हो बुराई उस की
ग़ज़ल
इस तरह करते हैं कुछ लोग बड़ाई उस की
जावेद शाहीन