EN اردو
इस तरह कभी रांदा-ए-दरबार नहीं थे | शाही शायरी
is tarah kabhi randa-e-darbar nahin the

ग़ज़ल

इस तरह कभी रांदा-ए-दरबार नहीं थे

मंज़र अय्यूबी

;

इस तरह कभी रांदा-ए-दरबार नहीं थे
रुस्वा थे मगर यूँ सर-ए-बाज़ार नहीं थे

सहरा में लिए फिरती है दीवानगी-ए-शौक़
क्या शहर में तेरे दर-ओ-दीवार नहीं थे

वो दिन गए जब मंज़िल-ए-जानाँ के मुसाफ़िर
रहरव थे फ़क़त क़ाफ़िला-सालार नहीं थे

है जुरअत-ए-गुफ़्तार तो फिर सामने आ कर
कह दीजिए हम लोग वफ़ादार नहीं थे

क्यूँ हम ही खटकते रहे दुनिया की नज़र में
दीवानों में इक हम ही तरह-दार नहीं थे

देते हैं दुआएँ तिरी दुज़्दीदा नज़र को
दीवाने कभी इतने तो हुशियार नहीं थे

क्यूँ मोहर-ब-लब कूचा-ए-जानाँ से गुज़रते
इंसान थे हम साया-ए-दीवार नहीं थे

वारफ़्तगी-ए-शौक़ बता तू ही कि हम से
आबाद कभी कूचा-ओ-बाज़ार नहीं थे