इस शहर में चलती है हवा और तरह की
जुर्म और तरह के हैं सज़ा और तरह की
इस बार तो पैमाना उठाया भी नहीं था
इस बार थी रिंदों की ख़ता और तरह की
हम आँखों में आँसू नहीं लाते हैं कि हम ने
पाई है विरासत में अदा और तरह की
इस बात पे नाराज़ था साक़ी कि सर-ए-बज़्म
क्यूँ आई पियालों से सदा और तरह की
इस दौर में मफ़्हूम-ए-मोहब्बत है तिजारत
इस दौर में होती है वफ़ा और तरह की
शबनम की जगह आग की बारिश हो मगर हम
'मंसूर' न माँगेंगे दुआ और तरह की
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ग़ज़ल
इस शहर में चलती है हवा और तरह की
मंसूर उस्मानी