इस सफ़र में नींद ऐसी खो गई
हम न सोए रात थक कर सो गई
दामन-ए-मौज-ए-सबा ख़ाली हुआ
बू-ए-गुल दश्त-ए-वफ़ा में खो गई
हाए इस परछाइयों के शहर में
दिल सी इक ज़िंदा हक़ीक़त खो गई
हम ने जब हँस कर कहा मम्नून हैं
ज़िंदगी जैसे पशेमाँ हो गई
ग़ज़ल
इस सफ़र में नींद ऐसी खो गई
राही मासूम रज़ा