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इस रात किसी और क़लम-रौ में कहीं था | शाही शायरी
is raat kisi aur qalam-rau mein kahin tha

ग़ज़ल

इस रात किसी और क़लम-रौ में कहीं था

तारिक़ नईम

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इस रात किसी और क़लम-रौ में कहीं था
तुम आए तो मैं अपने बदन ही में नहीं था

क्या बज़्म थी उस बज़्म में कौन आए हुए थे
महताब भी सूरज भी सितारा भी वहीं था

कुछ नींद से बोझल थीं तिरे शहर की आँखें
कुछ मेरी कहानी में भी वो रब्त नहीं था

कहते हैं कि रुक सी गई रफ़्तार-ए-ज़माना
जब सैर-ए-समावात में इक ख़ाक-नशीं था

ऐ काश ज़रा देर न तुम राह बदलते
दो चार क़दम और मिरा शहर-ए-हज़ीं था

ऐसे तो नहीं औज पे आया था सितमगर
वो ख़ुद भी हसीं उस का सितारा भी हसीं था

मैं ख़ाल-ए-रुख़-ए-यार पे दे देता समरक़ंद
लेकिन वो इलाक़ा भी मिरे पास नहीं था