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इस क़दर कीं जज़्बा-ए-उल्फ़त की पर्दा-पोशियाँ | शाही शायरी
is qadar kin jazba-e-ulfat ki parda-poshiyan

ग़ज़ल

इस क़दर कीं जज़्बा-ए-उल्फ़त की पर्दा-पोशियाँ

नूर फ़ातिमा नूर

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इस क़दर कीं जज़्बा-ए-उल्फ़त की पर्दा-पोशियाँ
डस रही हैं आज ख़ुद मुझ को मिरी ख़ामोशियाँ

कौन से सहरा के काँटे बिछ गए हैं राह में
कौन सी मंज़िल पे आ कर लुट गईं गुल-पोशियाँ

क्या हुआ वो सोज़-ए-फ़ुर्क़त और सुरूर-ए-इंतिज़ार
दिल से तेरी याद की दिन रात हम-आग़ोशियाँ

हर इक आहट पर तिरे आने का होता था गुमाँ
ख़ाक में सब मिल गईं हैं वो हमा-तन-गोशियाँ

फीकी फीकी हो गई है अब तिरी तहरीर भी
रंजिश-ए-पैहम ने तेरी छीन लीं मय-नोशियाँ

बद-गुमानी की हवा से गुल न हो शम-ए-वफ़ा
ज़ेहन-ओ-दिल में हो रही हैं आज ये सरगोशियाँ

उम्र भर का ग़म बनी है 'नूर' वो पल की ख़ुशी
होश के आलम में भी छाने लगीं बे-होशियाँ