इस क़दर हस्ती-ए-मौहूम से शरमाता हूँ
ज़िक्र जीने का जो आता है तो मर जाता हूँ
मौत ने कितने बखेड़ों से छुड़ाया मुझ को
न तड़पता हूँ न रोता हूँ न चिल्लाता हूँ
काम मुझ से नहीं होता कोई जुज़ जुर्म-ओ-गुनाह
मेहनत-ए-कातिब-ए-आ'माल से शरमाता हूँ
एक ख़त यार को लिखता हूँ जो बेताबी में
दूसरा कातिब-ए-आ'माल से लिखवाता हूँ
एक हमदर्द नहीं आलम-ए-तन्हाई में
मुझ को समझाता है दिल दिल को मैं समझाता हूँ
ग़ज़ल
इस क़दर हस्ती-ए-मौहूम से शरमाता हूँ
मीर अली औसत रशक