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इस क़दर हस्ती-ए-मौहूम से शरमाता हूँ | शाही शायरी
is qadar hasti-e-mauhum se sharmata hun

ग़ज़ल

इस क़दर हस्ती-ए-मौहूम से शरमाता हूँ

मीर अली औसत रशक

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इस क़दर हस्ती-ए-मौहूम से शरमाता हूँ
ज़िक्र जीने का जो आता है तो मर जाता हूँ

मौत ने कितने बखेड़ों से छुड़ाया मुझ को
न तड़पता हूँ न रोता हूँ न चिल्लाता हूँ

काम मुझ से नहीं होता कोई जुज़ जुर्म-ओ-गुनाह
मेहनत-ए-कातिब-ए-आ'माल से शरमाता हूँ

एक ख़त यार को लिखता हूँ जो बेताबी में
दूसरा कातिब-ए-आ'माल से लिखवाता हूँ

एक हमदर्द नहीं आलम-ए-तन्हाई में
मुझ को समझाता है दिल दिल को मैं समझाता हूँ