इस क़दर ग़र्क़ लहू में ये दिल-ए-ज़ार न था
जब हिना से तिरे पाँव को सरोकार न था
हुस्न का जज़्ब ज़ुलेख़ा सती कुछ चल न सका
वर्ना ये पाक गुहर क़ाबिल-ए-बाज़़ार न था
दिल में ज़ाहिद के जो जन्नत की हवा की है हवस
कूचा-ए-यार में क्या साया-ए-दीवार न था
दिल मिरा इश्क़ के धड़कों से मुआ जाता है
ये वो दिल है कि कोई ऐसा जिगर-दार न था
आप से क्यूँ न हुआ कह के 'यक़ीं' को मारा
रास्त पूछो तो कोई मुझ सा गुनहगार न था
ग़ज़ल
इस क़दर ग़र्क़ लहू में ये दिल-ए-ज़ार न था
इनामुल्लाह ख़ाँ यक़ीन