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इस क़दर भी तो न जज़्बात पे क़ाबू रक्खो | शाही शायरी
is qadar bhi to na jazbaat pe qabu rakkho

ग़ज़ल

इस क़दर भी तो न जज़्बात पे क़ाबू रक्खो

इफ़्तिख़ार नसीम

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इस क़दर भी तो न जज़्बात पे क़ाबू रक्खो
थक गए हो तो मिरे काँधे पे बाज़ू रक्खो

भूलने पाए न इस दश्त की वहशत दिल से
शहर के बीच रहो बाग़ में आहू रक्खो

ख़ुश्क हो जाएगी रोते हुए सहरा की तरह
कुछ बचा कर भी तो इस आँख में आँसू रक्खो

रौशनी होगी तो आ जाएगा रह-रव दिल का
उस की यादों के दिए ताक़ में हर-सू रक्खो

याद आएगी तुम्हारी ही सफ़र में उस को
उस के रूमाल में इक अच्छी सी ख़ुश्बू रक्खो

अब वो महबूब नहीं अपना मगर दोस्त तो है
उस से ये एक तअ'ल्लुक़ ही बहर-सू रक्खो