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इस ने देखा है सर-ए-बज़्म सितमगर की तरह | शाही शायरी
isne dekha hai sar-e-bazm sitamgar ki tarah

ग़ज़ल

इस ने देखा है सर-ए-बज़्म सितमगर की तरह

अंजुम इरफ़ानी

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इस ने देखा है सर-ए-बज़्म सितमगर की तरह
फूल फेंका भी मिरी सम्त तो पत्थर की तरह

उस के लब को मिरे लब रह गए छूते छूते
मैं भी नाकाम चला आया सिकंदर की तरह

रंग सूरज का सर-ए-शाम हुआ जाता है ज़र्द
उस का भी घर न हो वीरान मिरे घर की तरह

दर्द उस अहद की मीरास है डरना कैसा
दर्द को ओढ़ लिया करते हैं चादर की तरह

लोग हर लम्हा बदलते हैं नज़रिये अपने
ज़ेहन-ए-इंसाँ भी तवाइफ़ के है बिस्तर की तरह

अब की यूरिश में कहीं गिर ही न जाए ये फ़सील
शोर रहता है मिरे दिल में समुंदर की तरह

कैसा इस अहद में पैमान-ए-वफ़ा लोग अब तो
दोस्त हर साल बदलते हैं कैलन्डर की तरह

लफ़्ज़ आते ही मिरे लब पे लरज़ जाते हैं
हाल-ए-दिल सुनते हैं अब वो किसी अफ़सर की तरह

वही पाबंदी-ए-औक़ात वही मा'मूलात
ज़िंदगी घर में बसर होती है दफ़्तर की तरह

हो गया ख़ाक-नशीं पर ये झुकाए न झुका
किसी सर में भी न सौदा हो मिरे सर की तरह

'अंजुम' इस अहद में टूटे हुए दिल के रिश्ते
जोड़ने पर भी हैं उधड़े हुए कॉलर की तरह