इस में कोई फ़रेब तो ऐ आसमाँ नहीं
बिजली वहाँ गिरी है जहाँ आशियाँ नहीं
सय्याद मैं असीर कहूँ किस से हाल-ए-दिल
सिर्फ़ एक तू है वो भी मिरा हम-ज़बाँ नहीं
तुम ने दिया हमारी वफ़ाओं का क्या जवाब
ये हम वहाँ बताएँगे तुम को यहाँ नहीं
सज्दे जो बुत-कदे में किए मेरी क्या ख़ता
तुम ने कभी कहा ये मिरा आस्ताँ नहीं
गुम-कर्दा राह की कहीं मिट्टी न हो ख़राब
गर्द उस तरफ़ उड़ी है जिधर कारवाँ नहीं
क्यूँ शम्-ए-इंतिज़ार बुझाते हो ऐ 'क़मर'
नाले हैं ये किसी के सहर की अज़ाँ नहीं
ग़ज़ल
इस में कोई फ़रेब तो ऐ आसमाँ नहीं
क़मर जलालवी