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इस को कुछ तो मिलता है मुझ पे ज़ुल्म ढाने से | शाही शायरी
isko kuchh to milta hai mujh pe zulm Dhane se

ग़ज़ल

इस को कुछ तो मिलता है मुझ पे ज़ुल्म ढाने से

कुमार पाशी

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इस को कुछ तो मिलता है मुझ पे ज़ुल्म ढाने से
बाज़ वो न आएगा मेरा घर जलाने से

गा रही हैं दीवारें रक़्स में है आँगन भी
कितनी रौनक़ें आईं तेरे लूट आने से

आ कि तेरे माथे पर अब इसे सजा दूँ मैं
चाँद ले के आया हूँ रात के ख़ज़ाने से

वो भी इन दिनों यारो अपनी चाल में गुम है
हम भी कुछ नहीं कहते आज कल ज़माने से

हम ने अपनी आँखों में ख़्वाब कुछ सजाए हैं
अपना भी तअल्लुक़ है ज़ीस्त के घराने से

वो है बे-नज़र 'पाशी' उस को क्या ख़बर 'पाशी'
कितने दिल सुलगते हैं इक दिया बुझाने से