इस को कुछ तो मिलता है मुझ पे ज़ुल्म ढाने से
बाज़ वो न आएगा मेरा घर जलाने से
गा रही हैं दीवारें रक़्स में है आँगन भी
कितनी रौनक़ें आईं तेरे लूट आने से
आ कि तेरे माथे पर अब इसे सजा दूँ मैं
चाँद ले के आया हूँ रात के ख़ज़ाने से
वो भी इन दिनों यारो अपनी चाल में गुम है
हम भी कुछ नहीं कहते आज कल ज़माने से
हम ने अपनी आँखों में ख़्वाब कुछ सजाए हैं
अपना भी तअल्लुक़ है ज़ीस्त के घराने से
वो है बे-नज़र 'पाशी' उस को क्या ख़बर 'पाशी'
कितने दिल सुलगते हैं इक दिया बुझाने से
ग़ज़ल
इस को कुछ तो मिलता है मुझ पे ज़ुल्म ढाने से
कुमार पाशी

