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इस खुरदुरी ग़ज़ल को न यूँ मुँह बना के देख | शाही शायरी
is khurduri ghazal ko na yun munh bana ke dekh

ग़ज़ल

इस खुरदुरी ग़ज़ल को न यूँ मुँह बना के देख

मुज़फ़्फ़र हनफ़ी

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इस खुरदुरी ग़ज़ल को न यूँ मुँह बना के देख
किस हाल में लिखी है मिरे पास आ के देख

वो दिन हवा हुए कि बिछाते थे जान ओ दिल
अब एक बार और हमें मुस्कुरा के देख

पर्दा पड़ा हुआ है तबस्सुम के राज़ पर
फूलों से ओस आँख से आँसू गिरा के देख

ये दोपहर भी आई है परछाइयों के साथ
वैसे नज़र न आएँ तो मशअल जला के देख

गुलचीं ने जब तमाम शगूफ़ों को चुन लिया
काँटे पुकार उठे कि हमें आज़मा के देख

तू मेरा हम-सफ़र है तो फिर मेरे साथ चल
है राहज़न तो नक़्श-ए-क़दम रहनुमा के देख

अपनी नज़र से देख बरहना हयात को
आँखों से ये किताब की ऐनक हटा के देख

अज़-राह-ए-एहतियात सफ़र को न ख़त्म कर
ये फूल हैं कि आग क़दम तो जमा के देख

ठप्पा लगा हुआ है 'मुज़फ़्फ़र' के नाम का
उस का कोई भी शेर कहीं से उठा के देख