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इस ख़ार-मिज़ाजी में फूलों की तरह खिलना | शाही शायरी
is Khaar-mizaji mein phulon ki tarah khilna

ग़ज़ल

इस ख़ार-मिज़ाजी में फूलों की तरह खिलना

रउफ़ ख़लिश

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इस ख़ार-मिज़ाजी में फूलों की तरह खिलना
सौ बार गिले करना इक बार गले मिलना

मानिंद-ए-शजर हो तुम रुकता है रुके मौसम
ख़ुशबू को हवा दे कर शाख़ों की तरह हिलना

कूचों में घरों में अब इक शोर शराबा है
होता नहीं अपनों से बरसों में कभी मिलना

चेहरों के मुक़द्दर में क्यूँ जब्र भी शामिल है
बस में नहीं मुरझाना क़ाबू में नहीं खिलना

दूरी जो महकती है इक उम्र का हासिल है
इक ज़ख़्म है नज़दीकी खिलना न कभी सिलना