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इस के हाथों से जो ख़ुशबू-ए-हिना आती है | शाही शायरी
is ke hathon se jo KHushbu-e-hina aati hai

ग़ज़ल

इस के हाथों से जो ख़ुशबू-ए-हिना आती है

वसी शाह

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इस के हाथों से जो ख़ुशबू-ए-हिना आती है
ऐसा लगता है कि जन्नत से हवा आती है

चूमने दार को किस धज से चला है कोई
आज किस नाज़ से मक़्तल में क़ज़ा आती है

न कभी कोई करे तुझ से तिरे जैसा सुलूक
हाथ उठते ही यही लब पे दुआ आती है

तेरे ग़म को ये बरहना नहीं रहने देती
मेरी आँखों पे जो अश्कों की रिदा आती है

उस के चेहरे की तमाज़त भी है शामिल इस में
आज तपती हुई सावन की घटा आती है

घूमने जब भी तिरे शहर में जाती है वफ़ा
बैन करती हुई वापस वो सदा आती है

है वही बात हर इक लब पे बहुत आम यहाँ
हम से जो कहते हुए उन को हया आती है