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इस इब्तिदा की सलीक़े से इंतिहा करते | शाही शायरी
is ibtida ki saliqe se intiha karte

ग़ज़ल

इस इब्तिदा की सलीक़े से इंतिहा करते

अनवर मसूद

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इस इब्तिदा की सलीक़े से इंतिहा करते
वो एक बार मिले थे तो फिर मिला करते

किवाड़ गरचे मुक़फ़्फ़ल थे उस हवेली के
मगर फ़क़ीर गुज़रते रहे सदा करते

हमें क़रीना-ए-रंजिश कहाँ मयस्सर है
हम अपने बस में जो होते तिरा गिला करते

तिरी जफ़ा का फ़लक से न तज़्किरा छेड़ा
हुनर की बात किसी कम-हुनर से क्या करते

तुझे नहीं है अभी फ़ुर्सत-ए-करम न सही
थके नहीं हैं मिरे हाथ भी दुआ करते

उन्हें शिकायत-ए-बे-रब्ती-ए-सुख़न थी मगर
झिजक रहा था मैं इज़हार-ए-मुद्दआ करते

चिक़ें गिरी थीं दरीचों पे चार सू 'अनवर'
नज़र झुका के न चलते तो और क्या करते