इस इब्तिदा की सलीक़े से इंतिहा करते
वो एक बार मिले थे तो फिर मिला करते
किवाड़ गरचे मुक़फ़्फ़ल थे उस हवेली के
मगर फ़क़ीर गुज़रते रहे सदा करते
हमें क़रीना-ए-रंजिश कहाँ मयस्सर है
हम अपने बस में जो होते तिरा गिला करते
तिरी जफ़ा का फ़लक से न तज़्किरा छेड़ा
हुनर की बात किसी कम-हुनर से क्या करते
तुझे नहीं है अभी फ़ुर्सत-ए-करम न सही
थके नहीं हैं मिरे हाथ भी दुआ करते
उन्हें शिकायत-ए-बे-रब्ती-ए-सुख़न थी मगर
झिजक रहा था मैं इज़हार-ए-मुद्दआ करते
चिक़ें गिरी थीं दरीचों पे चार सू 'अनवर'
नज़र झुका के न चलते तो और क्या करते
ग़ज़ल
इस इब्तिदा की सलीक़े से इंतिहा करते
अनवर मसूद