इस हुजूम-ए-बे-अमाँ में कोई अपना भी तो हो
मैं गले किस को लगाऊँ कोई ज़िंदा भी तो हो
बर्ग-ए-आवारा हवा ना-आश्ना बे-मेहर फूल
आते जाते मौसमों में कोई ठहरा भी तो हो
सब घरों में लज़्ज़त-ए-आसूदगी है ख़ेमा-ज़न
मैं सदा क्या दूँ यहाँ पर कोई सुनता भी तो हो
फिर से शाख़-ए-दार पर खिलने लगें लाले के फूल
फिर से दुनिया जाग उठ्ठे कोई ऐसा भी तो हो
टूट जाता आप ही बे-दर्द सन्नाटे का ज़ोर
ख़ौफ़ से बाहर निकल कर कोई बोला भी तो हो
मैं ने उस को दिल-नवाज़-ओ-ख़ुश-अदा क्या क्या कहा
मेरी इस ज़िंदा-दिली को कोई समझा भी तो हो
मैं भी कह देता ये मेरे ख़्वाब की ताबीर है
तेरी ताबीरों में मेरा ख़्वाब बोला भी तो हो

ग़ज़ल
इस हुजूम-ए-बे-अमाँ में कोई अपना भी तो हो
इसहाक़ अतहर सिद्दीक़ी