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इस दिल से मिरे इश्क़ के अरमाँ को निकालो | शाही शायरी
is dil se mere ishq ke arman ko nikalo

ग़ज़ल

इस दिल से मिरे इश्क़ के अरमाँ को निकालो

नितिन नायाब

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इस दिल से मिरे इश्क़ के अरमाँ को निकालो
तहरीर से औराक़-ए-परेशाँ को निकालो

मुमकिन है तही कर दो मुझे हर किसी शय से
मुमकिन हो अगर दिल से इस ईमाँ को निकालो

गर दूर तलक बाब के इम्कान नहीं हैं
दीवार में इक रौज़न-ए-ज़िंदाँ को निकालो

जिस को है भरम आज भी पैमान-ए-वफ़ा का
सीने से मिरे उस दिल-ए-नादाँ को निकालो

पतझड़ में भी हर गुल पे बहार आए यक़ीनन
गुलशन से अगर मौसम-ए-हिज्राँ को निकालो

तब जा के लगा पाओगे दिल अपना ख़िज़ाँ से
पहले तो इस उम्मीद-ए-बहाराँ को निकालो

तन्हाई चली आए खुला जान के इक दर
पलकों से अगर याद के दरबाँ को निकालो

सहराओं में फिर दूर तलक साफ़ है मंज़र
आँखों से अगर रेत के तूफ़ाँ को निकालो

आशुफ़्ता-सरों पर भी नज़र जाएगी 'नायाब'
गर्दन से अगर सर-ब-गरेबाँ को निकालो