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इस दिल में अगर जल्वा-ए-दिल-दार न होता | शाही शायरी
is dil mein agar jalwa-e-dil-dar na hota

ग़ज़ल

इस दिल में अगर जल्वा-ए-दिल-दार न होता

शाह आसिम

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इस दिल में अगर जल्वा-ए-दिल-दार न होता
ज़िन्हार ये दिल मज़हर-ए-असरार न होता

होता न अगर जाम-ए-मय-ए-इश्क़ से सरशार
हरगिज़ दिल-ए-दीवाना ये होश्यार न होता

होता न अगर उस की मोहब्बत से सरोकार
ये ग़म-ज़दा रुस्वा सर-ए-बाज़ार न होता

होती न कभूँ इस दिल-ए-बीमार को सेह्हत
गर लुत्फ़-ए-मसीहा-ए-लब-ए-यार न होता

पीता न अगर जाम-ए-मय-ए-इश्क़ तो हरगिज़
दिल सिर्र-ए-हक़ीक़त से ख़बर-दार न होता

होता न अगर आईना-ए-जल्वा-ए-दिलदार
दिल महर-सिफ़त मतला-ए-अनवार न होता

होता न अगर इश्क़ को मंज़ूर ये इज़हार
वहदत से ये कसरत को सरोकार न होता

आगाह हक़ीक़त से न होता कभू 'आसिम'
ख़ादिम का अगर फ़ैज़ मदद-गार न होता