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इस धूप से क्या गिला है मुझ को | शाही शायरी
is dhup se kya gila hai mujhko

ग़ज़ल

इस धूप से क्या गिला है मुझ को

शहाब जाफ़री

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इस धूप से क्या गिला है मुझ को
साए ने जला दिया है मुझ को

मैं नाला-ए-सुकूत संग का हूँ
सहरा ने बहुत सुना है मुझ को

मैं लफ़्ज़ की तरह बे-ज़बाँ था
मा'नी ने अदा किया है मुझ को

हर सच का नसीब संग-सारी
और सच ही से वास्ता है मुझ को

ख़ाइफ़ नहीं मर्ग-ए-ना-गहाँ से
सीने का वो हौसला है मुझ को

पत्थर पे मिरी सदा का साया
आईना दिखा रहा है मुझ को

आवाज़ दे मुझ को तीरगी में
आवाज़ ही नक़्श-ए-पा है मुझ को