इस दश्त से आगे भी कोई दश्त-ए-गुमाँ है 
लेकिन ये यक़ीं कौन दिलाएगा कहाँ है 
ये रूह किसी और इलाक़े की मकीं है 
ये जिस्म किसी और जज़ीरे का मकाँ है 
करता है वही काम जो करना नहीं होता 
जो बात मैं कहता हूँ ये दिल सुनता कहाँ है 
कश्ती के मुसाफ़िर पे यूँही तारी नहीं ख़ौफ़ 
ठहरा हुआ पानी किसी ख़तरे का निशाँ है 
जो कुछ भी यहाँ है तिरे होने से है वर्ना 
मंज़र में जो खिलता है वो मंज़र में कहाँ है 
इस राख से उठती हुई ख़ुशबू ने बताया 
मरते हुए लोगों की कहाँ जा-ए-अमाँ है 
ये कार-ए-सुख़न कार-ए-अबस तो नहीं 'आमी' 
ये क़ाफ़िया-पैमाई नहीं हुस्न-ए-बयाँ है
        ग़ज़ल
इस दश्त से आगे भी कोई दश्त-ए-गुमाँ है
इमरान आमी

