इस दर्जा बद-गुमाँ हैं ख़ुलूस-ए-बशर से हम
अपनों को देखते हैं पराई नज़र से हम
ग़ुंचों से प्यार कर के ये इज़्ज़त हमें मिली
चूमे क़दम बहार ने गुज़रे जिधर से हम
वल्लाह तुझ से तर्क-ए-तअ'ल्लुक़ के बा'द भी
अक्सर गुज़र गए हैं तिरी रह-गुज़र से हम
सिदक़-ओ-सफ़ा-ए-क़ल्ब से महरूम है हयात
करते हैं बंदगी भी जहन्नम के डर से हम
उक़्बा में भी मिलेगी यही ज़िंदगी 'शकील'
मर कर न छूट पाएँगे इस दर्द-ए-सर से हम
ग़ज़ल
इस दर्जा बद-गुमाँ हैं ख़ुलूस-ए-बशर से हम
शकील बदायुनी