इस डर से मैं ने ज़ुल्फ़ की उस की न बात की
जाती है दूर दूर तक आवाज़ रात की
देखा जब आँख खोल के मिस्ल-ए-हबाब तब
मालूम काएनात हुई काएनात की
उस बुलबुल-ए-चमन की हुई आक़िबत ब-ख़ैर
साए में जिस ने आन के गुल के वफ़ात की
मैं हूँ सिफ़ात ही के तहय्युर में हम-नशीं
क्या बात मुझ से पूछे है तू उस की ज़ात की
दिल अपना उस को दीजिए या जी को खोइए
इस के सिवा तरह नहीं कोई नजात की
बोला अगर तो क़ंद-ए-मुकर्रर हुए वो लब
और चुप रहा तो ये भी है सूरत नबात की
वाक़िफ़ हो क्यूँ न शोला-ए-आतिश से दिल के वो
रहती है बाग़बाँ को ख़बर फूल पात की
शह चाल हो रहा हूँ सनम तेरे इश्क़ में
तू ने दिखा के रुख़ मिरी बाज़ी ही मात की
ज़ुल्फ़-ए-अरक़-फ़िशाँ तिरी जाँ-बख़्श क्यूँ न हो
तरकीब उस ने पाई है आब-ए-हयात की
उस सर से ग़ैर सर नहीं वाक़िफ़ कोई ग़रज़
लज़्ज़त बयाँ में आती नहीं तेरी लात की
चूँ ज़िंदगी-ओ-मर्ग हैं आपस में ज़िद 'हसन'
चश्म-ओ-लब उस की ज़िद है हयात ओ ममात की
ग़ज़ल
इस डर से मैं ने ज़ुल्फ़ की उस की न बात की
मीर हसन