इस बार इंतिज़ाम तो सर्दी का हो गया
क्या हाल पेड़ कटते ही बस्ती का हो गया
इस बार संगसार हुए बे-गुनाह लोग
इक रास्ता बदन की बहाली का हो गया
जिज़्या वसूल कीजिए या शहर उजाड़िए
अब तो ख़ुदा भी आप की मर्ज़ी का हो गया
मिट्टी के इक दिए की मुझे बद-दुआ लगी
लौ दे के एक बार मैं मिट्टी का हो गया
जलते मकान देख के लोग इतने ख़ुश हुए
पल में समाँ ही जैसे दिवाली का हो गया
निकला न मैं भी घर से सुनी मैं ने भी वो चीख़
कितना बड़ा इलाक़ा सिपाही का हो गया
ग़ज़ल
इस बार इंतिज़ाम तो सर्दी का हो गया
नोमान शौक़