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इर्तिकाब-ए-जुर्म शर की बात है | शाही शायरी
irtikab-e-jurm shar ki baat hai

ग़ज़ल

इर्तिकाब-ए-जुर्म शर की बात है

हैदर अली जाफ़री

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इर्तिकाब-ए-जुर्म शर की बात है
और बरी होना हुनर की बात है

इक कहानी है कि सदियों पर मुहीत
सोचने में दोपहर की बात है

आए ठहरे और रवाना हो गए
ज़िंदगी क्या है, सफ़र की बात है

एक शोला सा लपक कर रह गया
ये हयात-ए-मुख़्तसर की बात है

नासेहा गर हो सके मंज़िल पे मिल
ज़िंदगी तो रह-गुज़र की बात है

शादी-ओ-ग़म पर करें क्या तब्सिरा
तेरे मेरे सब के घर की बात है

रास्ते तो हैं मगर मंज़िल नहीं
क्या हमारे राहबर की बात है

अब तो दूकानों पे बिकती है वफ़ा
दोस्तो इफ़रात-ए-ज़र की बात है

बाल-ओ-पर होते तो क्यूँ होते असीर
क़ैद में क्यूँ बाल-ओ-पर की बात है

मुतमइन कोई नहीं हालात से
शाम के लब पर सहर की बात है

हर क़वी को है वहाँ जाने का हक़
दश्त की और बहर-ओ-बर की बात है

मुर्दनी ज़ाइल हो या बाक़ी रहे
ये तिरे हुस्न-ए-नज़र की बात है