इंतिहा-ए-ग़म में मुझ को मुस्कुराना आ गया
हाए इफ़्क़ा-ए-मोहब्बत का बहाना आ गया
इस तरफ़ इक आशियाने की हक़ीक़त खुल गई
उस तरफ़ इक शोख़ को बिजली गिराना आ गया
रो दिए वो ख़ुद भी मेरे गिर्या-ए-पैहम पे आज
अब हक़ीक़त में मुझे आँसू बहाना आ गया
मेरी ख़ाक-ए-दिल भी आख़िर उन के काम आ ही गई
कुछ नहीं तो उन को दामन ही बचाना आ गया
वो ख़राश-ए-दिल जो ऐ जज़्बा-ए-जज़्बी मिरी हमराज़ थी
आज उसे भी ज़ख़्म बन कर मुस्कुराना आ गया
ग़ज़ल
इंतिहा-ए-ग़म में मुझ को मुस्कुराना आ गया
मुईन अहसन जज़्बी