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इंसाँ को अपनी ज़ात का इदराक ही नहीं | शाही शायरी
insan ko apni zat ka idrak hi nahin

ग़ज़ल

इंसाँ को अपनी ज़ात का इदराक ही नहीं

अनवर कैफ़ी

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इंसाँ को अपनी ज़ात का इदराक ही नहीं
अब कोई वारदात अलमनाक ही नहीं

मज़लूम के लहू का न हो जिस पे कोई दाग़
ऐसी सिपाह-ए-वक़्त की पोशाक ही नहीं

इस दौर में हिफ़ाज़त-ए-ईमाँ के वास्ते
हैदर की मिस्ल तेग़-ए-ग़ज़बनाक ही नहीं

आ'माल हैं सियाह हमारे मगर हमें
शिकवा है मेहरबानी-ए-अफ़्लाक ही नहीं

रहमत ख़ुदा की जोश में आए तो कैसे आए
सैलाब-ए-अश्क-दीदा-ए-नमनाक ही नहीं

पहले बुलंद करता था 'अनवर' सदा-ए-हक़
लेकिन अब इस में जुरअत-ए-बे-बाक ही नहीं