इंसाँ को अपनी ज़ात का इदराक ही नहीं
अब कोई वारदात अलमनाक ही नहीं
मज़लूम के लहू का न हो जिस पे कोई दाग़
ऐसी सिपाह-ए-वक़्त की पोशाक ही नहीं
इस दौर में हिफ़ाज़त-ए-ईमाँ के वास्ते
हैदर की मिस्ल तेग़-ए-ग़ज़बनाक ही नहीं
आ'माल हैं सियाह हमारे मगर हमें
शिकवा है मेहरबानी-ए-अफ़्लाक ही नहीं
रहमत ख़ुदा की जोश में आए तो कैसे आए
सैलाब-ए-अश्क-दीदा-ए-नमनाक ही नहीं
पहले बुलंद करता था 'अनवर' सदा-ए-हक़
लेकिन अब इस में जुरअत-ए-बे-बाक ही नहीं
ग़ज़ल
इंसाँ को अपनी ज़ात का इदराक ही नहीं
अनवर कैफ़ी