इंसान की हालत पर अब वक़्त भी हैराँ है 
हर शख़्स के हाथों में अपना ही गरेबाँ है 
कीचड़ न उछालें हम किरदार पे औरों के 
है चाँद बरहना गर सूरज भी तो उर्यां है 
अब लोग सबक़ हम से क्यूँ कर नहीं लेते हैं 
अब पास हमारे तो इबरत का भी सामाँ है 
तब्दीली-ए-ख़्वाहिश पर ये ज़ेहन भी हैराँ है 
अब दिल ये मोहब्बत के साए से गुरेज़ाँ है 
हर रोज़ ही बहता है रुख़्सार पे रातों की 
ये अश्क फ़लक के जो चेहरे पे भी लर्ज़ां है 
क्यूँ उस को मोहब्बत का एहसास नहीं होता 
आँखों में मिरी अब तो हर दर्द नुमायाँ है 
दुनिया से तो लड़ने का आएगा मज़ा कितना 
पाने की तमन्ना में मिटने का भी इम्काँ है
        ग़ज़ल
इंसान की हालत पर अब वक़्त भी हैराँ है
सय्यद सग़ीर सफ़ी

