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इंसाफ़ जो नादार के घर तक नहीं पहुँचा | शाही शायरी
insaf jo nadar ke ghar tak nahin pahuncha

ग़ज़ल

इंसाफ़ जो नादार के घर तक नहीं पहुँचा

करामत बुख़ारी

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इंसाफ़ जो नादार के घर तक नहीं पहुँचा
समझो कि अभी हाथ समर तक नहीं पहुँचा

मिज़्गाँ पे रुके हैं अभी ढलके नहीं आँसू
ये सोच का सैलाब सफ़र तक नहीं पहुँचा

कुछ लोग अभी ख़ैर की ख़्वाहिश के अमीं हैं
दस्तार का झगड़ा अभी सर तक नहीं पहुँचा

पर्वाज़ में था अम्न का मासूम परिंदा
सुनते हैं कि बे-चारा शजर तक नहीं पहुँचा

इंसान तो दुख-दर्द के सहराओं में गुम है
ये क़ाफ़िला ख़ुशियों के डगर तक नहीं पहुँचा

मुद्दत से मोहब्बत के सफ़र में हूँ 'करामत'
लेकिन अभी चाहत के नगर तक नहीं पहुँचा