इंक़िलाबी सोच शाइ'र का क़लम अपनी जगह
आप की अंगड़ाइयाँ ज़ुल्फ़ों का ख़म अपनी जगह
जानता हूँ मैं तुम्हारे बातिनी किरदार को
जुब्बा-ओ-दस्तार-ए-आली-मोहतरम अपनी जगह
हम रहे अपनी अना में खो न बदली आप ने
आप भी अपनी जगह हैं और हम अपनी जगह
आप की हर बात को तस्लीम फ़रमाया गया
आप के फ़रमान के सब बेश-ओ-कम अपनी जगह
उस के आने की लगन में जी रहा हूँ इस तरह
कान आहट पर लगे अटका है दम अपनी जगह
सू-ए-मक़्तल जब चला 'अशरफ़' उठा कर ज़िंदगी
सर-कशीदा था मिरी आँखों का नम अपनी जगह
ग़ज़ल
इंक़िलाबी सोच शाइ'र का क़लम अपनी जगह
अशरफ़ अली अशरफ़