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इंकिशाफ़-ए-ज़ात के आगे धुआँ है और बस | शाही शायरी
inkishaf-e-zat ke aage dhuan hai aur bas

ग़ज़ल

इंकिशाफ़-ए-ज़ात के आगे धुआँ है और बस

अशअर नजमी

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इंकिशाफ़-ए-ज़ात के आगे धुआँ है और बस
एक तू है एक मैं हूँ आसमाँ है और बस

आईना-ख़ानों में रक़्सिंदा रुमूज़-ए-आगही
ओस में भीगा हुआ मेरा गुमाँ है और बस

कैनवस पर है ये किस का पैकर-ए-हर्फ़-ओ-सदा
इक नुमूद-ए-आरज़ू जो बे-निशाँ है और बस

हैरतों की सब से पहली सफ़ में ख़ुद मैं भी तो हूँ
जाने क्यूँ हर एक मंज़र बे-ज़बाँ है और बस

अजनबी लम्स-ए-बदन की रेंगती हैं च्यूंटियाँ
कुछ नहीं है साअत-ए-मौज-ए-रवाँ है और बस