EN اردو
इन उजड़ी बस्तियों का कोई तो निशाँ रहे | शाही शायरी
in ujDi bastiyon ka koi to nishan rahe

ग़ज़ल

इन उजड़ी बस्तियों का कोई तो निशाँ रहे

एज़ाज़ अहमद आज़र

;

इन उजड़ी बस्तियों का कोई तो निशाँ रहे
चूल्हे जलें कि घर ही जलें पर धुआँ रहे

नेरो ने बंसरी की नई तान छेड़ दी
अब रोम का नसीब फ़क़त दास्ताँ रहे

पानी समुंदरों का न छलनी से मापिये
ऐसा न हो कि सारा किया राएगाँ रहे

मुझ को सुपुर्द-ए-ख़ाक करो इस दुआ के साथ
आँगन में फूल खिलते रहें और मकाँ रहे

काटी है उम्र रात की पहनाइयों के साथ
हम शहर-ए-बे-चराग़ में ऐ बे-कसाँ रहे

'आज़र' हर एक गाम पे काटा है संग-ए-जब्र
हाथों में तेशा सामने कोह-ए-गिराँ रहे