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इन की नज़रों में न बन जाए तमाशा चेहरा | शाही शायरी
inki nazron mein na ban jae tamasha chehra

ग़ज़ल

इन की नज़रों में न बन जाए तमाशा चेहरा

ज़फ़र अंसारी ज़फ़र

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इन की नज़रों में न बन जाए तमाशा चेहरा
इस लिए डरता हूँ दिखलाने से अपना चेहरा

जाने क्या बात हुई शहर-ए-निगार-ए-जाँ में
आज क्यूँ अजनबी लगता है शनासा चेहरा

बहर-ए-ग़म भी है कभी आशिक़ ख़स्ता के लिए
है कभी साहिल-ए-इशरत भी तुम्हारा चेहरा

हम वहाँ हैं जहाँ क़ाएम है हुकूमत दिल की
फिर भी क्यूँ रोज़ दिखाता है करिश्मा चेहरा

चेहरा-ए-हुस्न को अब देख के ये सोचता हूँ
आइना है कोई या आइना-ख़ाना चेहरा

क्या रहे दिल की कोई बात मुअ'म्मा बन कर
करता रहता है यहाँ दिल का फ़साना चेहरा

कौन है जिस के लिए इतना परेशान है दिल
ढूँढता रहता है अब किस को वो चेहरा चेहरा

कुश्ता-ए-गर्दिश-ए-दौराँ हुए उफ़ री तक़दीर
वर्ना कल चाँद से बेहतर था हमारा चेहरा

वो तिरे फूल से दिन मुझ को बहुत याद आए
मैं ने देखा जो तिरा धूप में झुलसा चेहरा

चश्म-ए-मुश्ताक़ ज़-सर ता-ब-क़दम मैं भी हूँ
बन गया है जो तिरा हुस्न सरापा चेहरा

मेहरबाँ कौन मिरे दिल पे है इतना ऐ 'ज़फ़र'
हर घड़ी रहता है आँखों में ये किस का चेहरा